विशेष
इनकी संघर्ष की कहानी पढ़कर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे,खाने को खाना नहीं,सेब तक बन जाता है पत्थर
यहां ताजा खाना सपने के जैसा है, पारा इतना कम होता है कि फल यहां पत्थर की तरह हो जाते हैं। यहां सेना के हेलीकॉप्टर खाना टीन में बंद करके भेजते हैं। नंगे हाथ ट्रिगर छूने से उंगलियां खराब हो जाती है। सियाचीन में पारा इतना कम होता है कि बंदूक का ट्रिगर अगर नंगी उंगली से छू ले तो उंगली उसी पर चिपक सकती है और सुन्न पड़ सकती है।
देश की सीमा को हर जगह महफूज रखने के लिए हमारे जवान अपनी जान की बाजी लगा देते हैं तब जाकर हम अपने घरों में सुकून की नींद सो पाते हैं। सियाचिन ग्लेशियर धरती पर सबसे उंची जगह है जहां बर्फीले मौसम में जवान देश की सुरक्षा करते हुए अपनी जान दे देते हैं।
सियाचिन ग्लेशियर पर हजारों जवान शारीरिक, मानसिक यातनाओं को झेलते हुए डटे रहकर देश की सुरक्षा करते हैं।
सियाचिन ग्लेशियर पर तैनात जवान किन परिस्थितियों में अपना फर्ज निभाते हैं। ऐसा हमारे देश के जवान सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि जमीन का एक-एक टुकड़ा भारत मां का है। ऐसे में जब भी आप घर जायें या किसी जवान को देखें तो उसे सम्मान दें। इन जवानों की कहानी जानकर आपके भी रोंगटे खड़े हो जाएंगे।
60 डिग्री माइनस के तापमान में जहां ऑक्सीजन भी ठीक से नहीं आती है। ऐसी विषम परिस्थितियों में जवान यहां तैनात रहते हैं। समतल स्थान में जितनी ऑक्सीजन उपलब्ध रहती उसकी सिर्फ 10 फीसदी ही सियाचिन में में उपलब्ध होती है। सामान्य मानव का शरीर 5400 मीटर की उंचाई से उपर जिंदा नहीं रह सकता है, उसका शरीर इससे उपर की उंचाई को सहन नहीं कर सकता है क्योंकि पारा बहुत नीचे और ऑक्सीजन की कमी होती है। लेकिन देश के जवान 5500 मीटर से भी उपर की उंचाई पर तैनात रहते हैं।
सियाचिन ग्लेशियर पर कभी भी 100 मील प्रति घंटा की रफ्तार से अधिक की बर्फीली हवाएं चलने लगती हैं और पारा जीरो से 60 डिग्री माइनस तक पहुंच जाता है। जिस समय सियाचिन ग्लेशियर पर बर्फबारी शुरु होती है ऐसे में यहां 36 फीट तक बर्फ जम जाती है। घनघोर विपरीत परिस्थितियों में रहने वाले जवानों के लिए यहां जीवन एक संघर्ष हैं। लेकिन मातृभूमि की रक्षा के लिए ये जवान किसी भी हद तक जा सकते हैं।