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-75 डिग्री तापमान..जहां हवा भी बर्फ बन जाती है-वहां कैसे जीते हैं हमारे जवान..पढ़कर गर्व होगा

January 3, 2019
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सियाचिन का मोर्चा भारत के लिए भले ही नाक का सवाल है लेकिन ये मोर्चा अपने आप में हमारे जवानों के लिए किसी दुश्मन से कम नहीं है। यहां कुदरत हमले करती है और इंसान को अपने जज्बे से बड़ी जंग लड़नी होती है। यहां खू’न जमा देने वाली सर्दी में देश के जवान सीमा पर डेट रहते हैं।

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पानी भी यहां चाय की चुस्की की तरह पीना पड़ता है खाना तो समझिए हथौड़े से तोड़कर खाना पड़ता है। आज इसी जज्बे को बयां करने जा रहे हैं हम। आगे की स्लाइड्स में देखें सियाचिन के जांबाजों का साहस – सियाचिन की ये तस्वीरें एक ऐसे सफेद खौफ की तस्वीरे हैं जहां जिंदगी का हर पल किसी बड़ी जंग से कम नहीं है। जहां तक नजर दौड़ाएंगे वहां तक बर्फ नजर आएगी। यहां तापमान माइनस 25 से माइनस 75 डिग्री तक चला जाता है। ये वो तापमान है जहां इंसान का जिस्म इतना ठंडा हो सकता है कि उसकी मौ’त हो जाए।

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यही नहीं सियाचिन के जिस 22 हजार फुट पर भारतीय जवान पाकिस्तान से लगी एलओसी पर दिन रात तैनात रहते हैं वहां सांस लेने के लिए ऑक्सीजन भी नहीं मिलती। कहने को तो सियाचिन का नाम ‘सिया’ यानी ‘गुलाब’ और ‘चिन’ यानी ‘घाटी’ से मिलकर बना है लेकिन ये ‘गुलाबों की घाटी’ नहीं बल्कि हड्डियों को तोड़ देने वाली सर्द मौसम की सेज है। भारतीय सैनिकों के लिए यहां तीन चौकियां है जिसमें सबसे ऊंची और खतरनाक है नॉर्दन ग्लेशियर। यहां सैनिकों को तीन महीने तक लगातार मौसम से जूझकर देश की रक्षा करनी पड़ती है।

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बेस कैंप से भारत की जो चौकी सबसे दूर है उसका नाम इंद्रा कॉल है और सैनिकों को वहां तक पैदल जाने में लगभग 20 से 22 दिन का समय लग जाता है। चौकियों पर जाने वाले सैनिक एक के पीछे एक लाइन में चलते हैं और एक रस्सी सबकी कमर में बंधी होती है ताकि अगर कोई खाई में गिरने लगे तो बाकी लोग उसे बचा सकें। हिमस्खलन जैसे हादसों में तो सियाचिन जिंदगी और मौत के बीच जंग का मैदान बन जाता है। हिमस्खलन जैसे हादसों की यादें सियाचिन में तैनात रह चुके सैनिकों को अब भी सिहरने पर मजबूर कर देती हैं। सियाचिन में चलने के लिए फिसलन भरी बर्फ है और दूसरी तरफ सर्दी से बचने के लिए सैनिक को कपड़ों की कई पर्ते लादनी पड़ती हैं। सबसे ऊपर जो कोट पहना जाता है उसे स्नो कोट कहते हैं जो बेहद भारी होता है।

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सियाचिन में टेंट को गर्म रखने के लिए एक ख़ास तरह की अंगीठी का इस्तेमाल किया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में ‘बुख़ारी’ कहते हैं। इसमें लोहे के एक सिलिंडर में मिट्टी का तेल डालकर उसे जला देते हैं। इससे वो सिलिंडर गर्म होकर बिल्कुल लाल हो जाता है और टेंट गर्म रहता है।

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यहां नहाने के बारे में सोचा नहीं जा सकता और सैनिकों को दाढ़ी बनाने के लिए भी मना किया जाता है क्योंकि वहां त्वचा इतनी नाज़ुक हो जाती है कि उसके कटने का ख़तरा काफी बढ़ जाता है।सबसे ऊंचाई तक जाने और सबसे ऊंचाई पर बने हेलिपैड पर लैंड करने वाले हेलिकॉप्टर का रिकॉर्ड इसी के नाम है लेकिन आप ये जानकर चौंक जाएंगे कि यहां चीता हेलिकॉप्टर सिर्फ़ 30 सेकेंड के लिए ही रुकता है। क़रीब 78 किलोमीटर लम्बे सियाचिन क्षेत्र के दो तिहाई इलाके और उसकी अहम चोटियों पर 1984 से भारतीय सैनिकों का कब्ज़ा है। वहां भारत और पाकिस्तान के सैनिक दुनिया के सबसे ऊंचे रण-क्षेत्र में अपनी सरहदों की चौकसी करते हैं। मौसम का क़हर वहां दोनों देशों के सैनिकों के लिए जानलेवा साबित होता रहा है। दिन का तापमान यहां शून्य से 25 डिग्री तो रात का 50 डिग्री सेल्सियस तक नीचे रहता है। ख़राब मौसम की वजह से सियाचिन में 1984 से अब तक जहां भारत ने क़रीब 900 सैनिक गंवाये हैं, वहीं पाकिस्तानी फ़ौज को क़रीब डेढ़ गुना ज़्यादा नुक़सान हुआ है। इसीलिए, 1989 से ये बात छिड़ी हुई है कि क्यों न सियाचिन को एक शान्ति-क्षेत्र बना दिया जाए।

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सियाचिन के विसैन्यीकरण (demilitarization) का प्रस्ताव मूलतः पाकिस्तान का था। उसका कहना था कि दुनिया के इस सबसे दुर्दान्त क्षेत्र में सेना रखने का ख़र्च बहुत ज़्यादा है। पाकिस्तान के मुक़ाबले भारत के लिए तो ये तीन गुना अधिक है। क्योंकि पाकिस्तान काफ़ी हद तक रसद आपूर्ति सड़कों से कर लेता है, जबकि भारतीय सेना को पूरी तरह से हेलिकॉप्टरों पर निर्भर रहना पड़ता है। पाकिस्तान की दलील है कि सियाचिन में सेना तैनात करके किसी पक्ष को कुछ हासिल नहीं होता, क्योंकि वहां ऐसा कुछ है ही नहीं जिसे हासिल किया जा सके। जबकि सच्चाई ये है कि सियाचिन पर कब्ज़ा करने के लिए पाकिस्तान ने जीतोड़ कोशिश की है। लेकिन हर बार उसे मुंह की खानी पड़ी है।

साफ़ है कि सियाचिन में तैनात जांबाज़ों को राहत पहुंचाने का हरेक इरादा भारत-पाक के तल्ख़ रिश्तों की भेंट चढ़ता रहेगा। इस बीच, मौसम के पूर्वानुमान वाली तकनीकों को और पुख़्ता करके ही सैनिकों को राहत दी जा सकती है। क्योंकि सियाचिन के शिखर यदि एक बार हाथ से निकल गये तो उन्हें फिर से मुट्ठी में करना लगभग असम्भव है। सियाचिन ग्लेशियर पर तैनात सैनिक अब बहां रहकर भी स्नान कर सकते हैं। वर्तमान में तीन महीने सियाचिन की 21,700 फीट की ऊंचाई पर स्थित होने की वजह से वो स्नान करने में असक्षम हैं क्योंकि वहां पानी की व्यवस्था नहीं है। सैनिकों को स्वदेशी रूप से विकसित जलविहीन शरीर स्वच्छता उत्पाद दिए जा सकते हैं जिससे उनके स्नान करने की समस्या समाप्त हो जाएगी।

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कोलकाता स्थित पूर्वी कमान, जो चीन के साथ भारत की विवादित सीमा की रखवाली करती है, उसने उत्पादों का परीक्षण कर ऑर्डर दिया है। दो अधिकारियों ने सोमवार को नाम न छापने की शर्त पर ये जानकारी दी। भारत ग्लेशियर पर हर समय लगभग 3,000 सैनिक तैनात रहते हैं जहां तापमान शून्य से 60 डिग्री नीचे तक चला जाता है। रणनीतिक ग्लेशियर की रखवाली पर रोजाना पांच करोड़ से सात करोड़ रुपये खर्च होते हैं।

पूर्वोत्तर में चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तैनात सैनिकों ने जलविहीन स्नान उत्पादों को बहुत उपयोगी पाया है। उस प्रतिक्रिया के आधार पर, पूर्वी कमान ने इन उत्पादों की हजारों बोतलों का ऑर्डर दिया है। सियाचिन सहित अन्य उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्रों में सैनिकों को भी ये उत्पाद मिलेंगे। ” ग्लेशियर में लगभग 80% सैनिक 16,000 फीट से ऊपर तैनात रहते हैं। ग्लेशियर में देश की सेवा करने वाले एक अधिकारी ने कहा कि यह व्यक्तिगत स्वच्छता के दृष्टिकोण से एक शानदार कदम है। सियाचिन में बर्फ को पिघला कर पानी बनाने में बहुत अधिक ईंधन की आवश्यकता होगी और यह संभव नहीं है।

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